रक्षा का आधारस्तंभ: शासक का पवित्र कवच
dharmasutra
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एक समाज अपनी शक्ति की छाया में नहीं, अपितु अपनी सुरक्षा के प्रकाश में स्वतंत्र रूप से श्वास लेता है। मानवीय चेतना एक निर्भय भूमि की खोज करती है—एक ऐसा अभयारण्य जहाँ संस्कृति, परिवार और आंतरिक विकास के कोमल अंकुर, बलवानों के अविवेकी पदतलों से कुचले जाने के भय के बिना फल-फूल सकें। यह गहन आश्वासन की स्थिति, यह सामूहिक सुरक्षा की भावना, इतिहास की कोई आकस्मिक घटना नहीं है; यह एक धर्मपरायण शासन का प्रथम और परम पवित्र कर्तव्य है, यह वही उर्वरा भूमि है जिसमें एक धार्मिक सभ्यता की जड़ें जमती हैं। इस कवच के बिना, अन्य सभी प्रयास, चाहे वे भौतिक हों या आध्यात्मिक, अनिश्चित और क्षणभंगुर हो जाते हैं।
महाभारत, अपने राजधर्म विषयक विशाल संवाद में, एक शासक की वैधता को उसकी शक्ति में नहीं, बल्कि उसकी प्रजा की रक्षा करने की क्षमता में स्थापित करता है। यह इस कर्तव्य को एक आध्यात्मिक लेनदेन के रूप में प्रस्तुत करता है, जहाँ शासक अपनी सुरक्षित प्रजा के पुण्य में भागीदार बनता है।
राज्ञा हि रक्ष्यमाणानां यत्पुण्यमुपचीयते
चतुर्थस्तस्य भागो हि राजानमुपतिष्ठते“राजा द्वारा संरक्षित प्रजा जो पुण्य अर्जित करती है, उस पुण्य का चतुर्थांश (चौथा भाग) उस राजा को प्राप्त होता है।”
(महाभारत, शांति पर्व ७५.८-९ का एक रूपांतर)
भीष्म के उपदेश से लिया गया यह गहन श्लोक सुशासन की आध्यात्मिक संरचना को प्रकट करता है। एक नेता, राजनीतिज्ञ या राजा का मुख्य दायित्व ‘पालन’ शब्द से परिभाषित होता है, जिसका अर्थ है रक्षा, पोषण और संरक्षण। यही वह आधारस्तंभ है जिस पर राजधर्म का संपूर्ण भवन खड़ा है।
शास्त्र शासक के प्राथमिक पुरस्कार के रूप में शक्ति, धन या विजय की बात नहीं करता। इसके बजाय, यह प्रजा द्वारा संचित पुण्य में एक अंश प्रदान करता है। यह पद धारण करने के संपूर्ण उद्देश्य को एक नया आयाम देता है। शासन सांसारिक लाभ (भोग) का साधन न रहकर, सर्वोच्च प्रकार का यज्ञ बन जाता है। शासक का निवेश सुरक्षा है; और उसका प्रतिफल आध्यात्मिक पुण्य। जब एक नागरिक बिना किसी भय के अपने दैनिक अनुष्ठान कर सकता है, दान में संलग्न हो सकता है, एक परिवार का पालन-पोषण कर सकता है, या मोक्ष का मार्ग अपना सकता है, तो उस अभय का वातावरण बनाने वाला शासक चुपचाप उसके अच्छे कर्मों में भागीदार बन जाता है।
यह सिद्धांत केवल बाहरी आक्रमणकारियों से सैन्य सुरक्षा से कहीं आगे तक फैला हुआ है। इसमें आंतरिक खतरों से सुरक्षा भी सम्मिलित है: अपराध, भ्रष्टाचार, और बलवानों द्वारा निर्बलों का शोषण। इसका अर्थ है, अधर्मियों से धर्मियों की, चोर से ईमानदार व्यापारी की, और शक्तिशाली जमींदार से साधारण किसान की रक्षा करना। एक शासक का कर्तव्य एक जीवंत कवच बनना है, यह सुनिश्चित करना कि समाज के प्रत्येक सदस्य को अपने-अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता हो।
आधुनिक संदर्भ में, इसका अर्थ है कानून और व्यवस्था के प्रति अटूट प्रतिबद्धता, एक ऐसी न्याय प्रणाली जो सभी के लिए सुलभ हो, और ऐसी सामाजिक संरचनाएं जो कमजोरों की रक्षा करें। एक नेता की सफलता राज्य के खजाने की ऊंचाई से नहीं, बल्कि लोगों की शांति की गहराई से मापी जाती है। जब नागरिक अपनी गलियों में सुरक्षित चल सकते हैं, जब उनकी संपत्ति सुरक्षित है, और जब उन्हें विश्वास है कि राज्य एक संरक्षक है, शिकारी नहीं, तब वह शासक वास्तव में अपने धर्म का निर्वहन कर रहा होता है। यह श्लोक एक शाश्वत अनुस्मारक है कि अधिकार भोगने का हक नहीं, बल्कि रक्षा करने का एक पवित्र कर्तव्य है, जिसकी अंतिम जवाबदेही स्वयं धर्म के प्रति है।
एक शासक की सच्ची शक्ति उसकी तलवार की धार में नहीं, बल्कि उसके शासन में फलने-फूलने वाली शांति में पाई जाती है। मार्ग प्राचीन है, पर चरण नए हैं—जागरूकता के साथ चलें।
धर्म का राजदंड: न्याय, व्यवस्था और अराजकता का भय
प्रत्येक सभ्य समाज के हृदय में एक मौन समझौता निहित है: कि व्यवस्था, अव्यवस्था से श्रेष्ठ है, और विवादों का निर्णायक न्याय है, पाशविक बल नहीं। जब यह समझौता टूट जाता है, तो विश्व एक आदिम अवस्था में लौट जाता है जहाँ एकमात्र नियम शिकारी और शिकार का होता है। वह उपकरण जो इस अराजकता को दूर रखता है, जो बलवानों के विरुद्ध निर्बलों की गरिमा को बनाए रखता है, वह कोई सुझाव या अनुरोध नहीं है। वह न्याय का दृढ़, निष्पक्ष और अटूट राजदंड है, जिसे बिना किसी भय या पक्षपात के धारण किया जाता है।
धर्मशास्त्र एक ऐसे राज्य के परिणामों के बारे में स्पष्ट हैं जहाँ दृढ़ और निष्पक्ष कानून प्रवर्तन का अभाव होता है। वे उस अराजकता का एक भयावह चित्र प्रस्तुत करते हैं जो धर्मपरायण व्यवस्था के सिद्धांत को त्यागने पर प्रबल होती है, इस स्थिति को मत्स्य न्याय के रूप में जाना जाता है।
यदि न प्रणयेद्राजा दण्डं दण्ड्येष्वतन्द्रितः ।
शूले मत्स्यानिवापक्ष्यन् दुर्बलान् बलवत्तराः ॥“यदि राजा आलस्यरहित होकर दंड के योग्य अपराधियों को दंड न दे, तो बलवान लोग निर्बलों को उसी प्रकार भून डालेंगे जैसे सींक पर मछली को भूना जाता है।”
(मनुस्मृति ७.२०)
यह श्लोक दंड की आवश्यकता पर एक भयावह और शक्तिशाली व्याख्या है। दंड का अनुवाद अक्सर “सजा” के रूप में किया जाता है, लेकिन इसका अर्थ कहीं अधिक गहरा है। यह धर्मपरायण प्रवर्तन का सिद्धांत है, राज्य की वह शक्ति जो यह सुनिश्चित करती है कि धर्म केवल एक सैद्धांतिक आदर्श न होकर एक जीवंत वास्तविकता है। यह वह बल है जो अधर्म के परिणाम लाता है। दंड के बिना, सभी कानून मात्र सुझाव बनकर रह जाते हैं।
ऋषि मनु सींक पर भुनी जा रही मछली के मार्मिक रूपक का उपयोग करते हैं ताकि श्रोता को व्यवस्था के बिना की दुनिया की क्रूर वास्तविकता का बोध हो सके। मत्स्य न्याय – बड़ी मछली का छोटी मछली को खाना – अराजकता की स्वाभाविक स्थिति है। शासक का उद्देश्य जंगल के इस नियम से ऊपर उठकर धर्म के शासन को स्थापित करना है। यह केवल नैतिकता की अपील से नहीं, बल्कि दंड के सतर्क और निष्पक्ष प्रयोग से प्राप्त होता है।
इस श्लोक में दो शब्द किसी भी शासक के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। पहला है अतन्द्रितः—”अथक” या “आलस्य रहित”। न्याय कभी-कभार नहीं हो सकता। कानून का प्रवर्तन निरंतर, सतर्क और ऊर्जावान होना चाहिए। एक आलसी या आत्मसंतुष्ट प्रशासन अराजकता को आमंत्रित करता है। दूसरा महत्वपूर्ण तत्व निष्पक्षता की अंतर्निहित मांग है। दंड को “दंड के योग्य लोगों” पर लागू किया जाना चाहिए, चाहे उनकी संपत्ति, स्थिति या शासक से उनका संबंध कुछ भी हो। जब न्याय चयनात्मक होता है, तो वह न्याय नहीं रह जाता और उत्पीड़न का एक उपकरण बन जाता है। शासक राजदंड का धारक है, लेकिन राजदंड स्वयं धर्म का है।
आधुनिक राजनीतिज्ञ के लिए, यह एक गहन निर्देश है। यह एक सुदृढ़, स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका के निर्माण और रखरखाव का आह्वान करता है। यह मांग करता है कि कानून प्रवर्तन तीव्र, निष्पक्ष और जवाबदेह हो। यह राज्य की शक्ति का उपयोग व्यक्तिगत या राजनीतिक प्रतिशोध के लिए करने, या शक्तिशाली लोगों को उनके कार्यों के परिणामों से बचाने के प्रलोभन के विरुद्ध चेतावनी देता है। एक राष्ट्र की स्थिरता, समृद्धि और आध्यात्मिक स्वास्थ्य पूरी तरह से इस बात पर निर्भर करता है कि क्या उसके नागरिक मानते हैं कि न्याय होगा, और कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। दंड, जब धर्मपूर्वक धारण किया जाता है, तो यह भय का साधन नहीं, बल्कि सामान्य व्यक्ति के लिए निर्भयता का अंतिम गारंटर होता है।
न्याय का राजदंड तब सबसे भारी होता है जब उसे अपने प्रियजनों के विरुद्ध उठाना पड़ता है, फिर भी उसी क्षण में उसके सच्चे उद्देश्य, यानी ब्रह्मांडीय व्यवस्था के संरक्षण, की पूर्ति होती है।
सेवा का सिंहासन: नेतृत्व एक सर्वोच्च योग
उच्च पद का आकर्षण अक्सर शक्ति, प्रतिष्ठा और व्यक्तिगत विरासत के वादे से जुड़ा होता है। फिर भी, इतिहास सिखाता है कि स्वार्थ पर बने सिंहासन रेत के बने होते हैं, जो समय के ज्वार से बह जाने के लिए अभिशप्त हैं। अधिकार का सच्चा अडिग आसन कोई सिंहासन नहीं, बल्कि निस्वार्थ सेवा का एक मंच है, जहाँ से एक नेता का प्रत्येक कार्य विश्व के कल्याण के लिए एक अर्पण बन जाता है। महानतम नेता वे नहीं हैं जिनकी सेवा की जाती है, बल्कि वे हैं जो सेवा करते हैं।
भगवद्गीता में, श्री कृष्ण अर्जुन को सम्यक् कर्म की प्रकृति पर निर्देश देते हैं, एक ऐसा शाश्वत सिद्धांत प्रदान करते हैं जो विशेष रूप से नेतृत्व के पदों पर आसीन लोगों के लिए प्रबल है। वे समझाते हैं कि महापुरुषों का आचरण ही संपूर्ण समाज के लिए मानक निर्धारित करता है।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥“श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, दूसरे लोग भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो प्रमाण प्रस्तुत करता है, समस्त संसार उसी का अनुसरण करता है।”
(भगवद्गीता ३.२१)
यह श्लोक शासन के कार्य को कर्मयोग के एक रूप में प्रतिष्ठित करता है। श्री कृष्ण नेता को श्रेष्ठ के रूप में पहचानते हैं – सबसे अग्रणी, सर्वोत्तम, सबसे सम्मानित। यह कोई विशेषाधिकार का पद नहीं, बल्कि एक अपार आध्यात्मिक जिम्मेदारी है। यह श्लोक सामाजिक गतिशीलता के एक मौलिक नियम को उजागर करता है: संस्कृति ऊपर से नीचे की ओर प्रवाहित होती है। नेता का आचरण ही पूरी प्रजा के लिए प्रमाण बन जाता है, यानी मानक और आदर्श।
अतः, एक नेता की व्यक्तिगत निष्ठा कोई निजी मामला नहीं है। उनकी ईमानदारी, विनम्रता, आत्म-संयम और कर्तव्य के प्रति समर्पण सार्वजनिक संपत्ति हैं। एक शासक जो भ्रष्ट है, वह भ्रष्टाचार को सामान्य बना देता है। एक नेता जो भोग-विलास में लिप्त है, वह भौतिकवाद को प्रेरित करता है। इसके विपरीत, एक नेता जो अनुशासित, न्यायप्रिय और दयालु है, वह अपने शासित समाज में उन्हीं गुणों को प्रेरित करता है। वे केवल आदेश से नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व मात्र से नेतृत्व करते हैं।
यह सिद्धांत लोकसंग्रह का आधार है – गीता में एक प्रमुख अवधारणा जिसका अर्थ है, “संसार के रखरखाव और कल्याण के लिए”। श्री कृष्ण समझाते हैं कि एक प्रबुद्ध आत्मा को भी, जिसे कार्य करने की कोई व्यक्तिगत आवश्यकता नहीं हो सकती है, दूसरों का मार्गदर्शन करने और समाज को एक साथ रखने के एकमात्र उद्देश्य के लिए अपने कर्तव्यों का निस्वार्थ भाव से पालन करना चाहिए। एक राजनीतिज्ञ जो इस आदर्श को अपनाता है, वह समझता है कि उसका पद आत्म-प्रचार के लिए नहीं है। यह एक पवित्र न्यास (trust) है, कर्म में धर्म को प्रदर्शित करने का एक मंच है।
तब प्रत्येक निर्णय को इस प्रश्न के विरुद्ध तौला जाना चाहिए: “मैं क्या मानक स्थापित कर रहा हूँ?” यह शक्ति के प्रलोभनों का अंतिम प्रतिकार है। जब शासन को सामूहिक भलाई के लिए एक निस्वार्थ अर्पण के रूप में देखा जाता है, तो व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा, लालच और प्रसिद्धि की इच्छा गौण हो जाती है। स्वयं कार्य, उत्कृष्टता और अनासक्ति के साथ किया गया, ही लक्ष्य बन जाता है। राजनीतिज्ञ एक सच्चा कर्मयोगी बन जाता है, और उसका पद, चाहे वह स्थानीय परिषद की सीट हो या देश का सर्वोच्च पद, उसकी आध्यात्मिक साधना का क्षेत्र बन जाता है।
सच्ची शक्ति आज्ञा का पालन कराने की क्षमता नहीं, बल्कि सद्गुण को प्रेरित करने की क्षमता है। एक नेता जो सबसे बड़ी विरासत छोड़ सकता है, वह एक ऐसा समाज है जो उसके उच्चतम स्व का प्रतिबिंब बन गया हो।
मधुमक्खी का विवेक: शासन और समृद्धि की कला
एक राज्य और उसकी प्रजा के बीच का संबंध एक नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र है। एक सरकार जो बहुत अधिक, बहुत लापरवाही से प्रजा से धन लेती है, वह अपनी आजीविका के स्रोत को ही विषैला बना देती है और उस भूमि पर एक अभिशाप बन जाती है। लेकिन एक ऐसा नेतृत्व जो विवेक से शासन करता है, वह समझता है कि राष्ट्रीय शक्ति अपने नागरिकों की समृद्धि से उत्पन्न होती है। ऐसा नेता केवल राष्ट्र की संपत्ति से संचय नहीं करता; वह उसके उद्यान का पोषण करता है, यह सुनिश्चित करता है कि मिट्टी समृद्ध बनी रहे और पौधे आने वाली पीढ़ियों के लिए खिल सकें।
धर्मशास्त्र राजकोषीय नीति पर उल्लेखनीय रूप से परिष्कृत और शाश्वत सलाह प्रदान करते हैं। वे शासक को उस प्रकार के लालची कराधान के विरुद्ध सावधान करते हैं जो लोगों की उत्पादक क्षमता को नष्ट कर देता है, और धारणीय शासन के सिद्धांत को स्पष्ट करने के लिए प्राकृतिक जगत से सुंदर रूपकों का उपयोग करते हैं।
यथाल्पाल्पमदन्त्याद्यं वार्योकोवत्सषट्पदाः ।
तथाल्पाल्पो ग्रहीतव्यो राष्ट्राद्राज्ञाब्दिकः करः ॥“जैसे जोंक, बछड़ा और मधुमक्खी थोड़ा-थोड़ा करके अपना भोजन ग्रहण करते हैं, वैसे ही राजा को अपने राज्य से संयमित वार्षिक कर लेना चाहिए।”
(मनुस्मृति ७.१२९)
इस श्लोक में धर्मसम्मत अर्थशास्त्र की एक उत्कृष्ट शिक्षा निहित है, जिसे तीन विशिष्ट और अंतर्दृष्टिपूर्ण रूपकों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। यह एक शासक को मार्गदर्शन देता है कि राज्य के संचालन के लिए आवश्यक संसाधनों को कैसे एकत्र किया जाए, बिना उस समाज को पंगु बनाए जिसकी सेवा के लिए वह है।
- जोंक (वार्योक): एक जोंक धीरे-धीरे और कम मात्रा में रक्त चूसती है, केवल उतना ही लेती है जितना उसके पोषण के लिए आवश्यक हो, अपने पोषक को मारे बिना। यह पहला सिद्धांत है: कराधान विनाशकारी नहीं होना चाहिए। यह एक छोटा, लगभग अगोचर निष्कर्षण होना चाहिए जो धन के स्रोत—नागरिक—को अपना जीवन और कार्य बिना किसी बाधा के जारी रखने की अनुमति दे।
- बछड़ा (वत्स): एक बछड़ा अपनी माँ का दूध पीता है, लेकिन कभी इतना नहीं कि गाय को कोई हानि हो या उसका दूध समाप्त हो जाए। वह दूसरों के लिए पर्याप्त छोड़ देता है और यह सुनिश्चित करता है कि गाय स्वस्थ और उत्पादक बनी रहे। यह धारणीयता (sustainability) के सिद्धांत को दर्शाता है। राज्य को “अर्थव्यवस्था को सुखा नहीं देना चाहिए।” उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि नागरिकों और व्यवसायों के पास भविष्य में पुनर्निवेश करने, बढ़ने और समृद्ध होने के लिए पर्याप्त पूंजी बनी रहे।
- मधुमक्खी (षट्पद): यह सर्वोच्च और सबसे गहन आदर्श है। एक मधुमक्खी एक फूल से पराग एकत्र करती है, लेकिन ऐसा करने में, वह पुष्प को कोई हानि नहीं पहुँचाती है। वास्तव में, परागण की क्रिया के माध्यम से, वह फूल को फलने-फूलने और प्रजनन करने में सहायता करती है। यह पुनर्योजी शासन (regenerative governance) का मॉडल है। एक बुद्धिमान राजकोषीय नीति न केवल संयम से कर लेती है बल्कि अधिक समृद्धि के लिए परिस्थितियाँ भी बनाती है। राज्य को, अपने न्यायपूर्ण कानूनों, बुनियादी ढांचे और सुरक्षा के माध्यम से, एक परागणकर्ता के रूप में कार्य करना चाहिए, जिससे वाणिज्य और रचनात्मकता को खिलने में सक्षम बनाया जा सके, जो बदले में सभी की भलाई के लिए और अधिक “मधु” उत्पन्न करता है।
मूल संदेश यह है कि राज्य का खजाना शासक की निजी संपत्ति नहीं है, बल्कि सार्वजनिक भलाई के लिए रखा गया एक न्यास (trust) है—योग-क्षेम के लिए, जो लोगों की सुरक्षा और कल्याण सुनिश्चित करता है। इस शास्त्र से निर्देशित एक राजनीतिज्ञ निष्पक्ष, संयमित और पूर्वानुमेय करों का समर्थक होगा। वह समझेगा कि दमनकारी आर्थिक नीतियां न केवल अन्यायपूर्ण हैं, बल्कि अदूरदर्शी और अधार्मिक नेतृत्व का भी संकेत हैं। लक्ष्य केवल धन निकालना नहीं है, बल्कि एक ऐसा संपन्न पारिस्थितिकी तंत्र बनाना है जहां समृद्धि व्यापक और धारणीय हो।
समापन
एक राष्ट्र का सच्चा धन उसके खजाने में रखे सोने में नहीं, बल्कि उसके फलते-फूलते घरों, जीवंत बाजारों और समृद्ध उद्यमों में पाया जाता है। बुद्धिमान शासक इस उद्यान की देखभाल बड़े यत्न से करता है।