धर्मसूत्र (https://dharmasutra.org/) के बारे में
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥” (भगवद गीता 2.47)
प्रिय भक्तगण,
धर्मसूत्र पर आपका स्वागत है। यह वेबसाइट हिन्दू धर्म के विभिन्न पहलुओं को साझा करने और इसके पवित्र ज्ञान को व्यापक रूप से प्रसारित करने के उद्देश्य से स्थापित की गई है।
हमारा उद्देश्य: धर्मसूत्र का प्रमुख उद्देश्य हिन्दू धर्म की महानता और पवित्रता को दुनिया भर में फैलाना है। हम चाहते हैं कि अधिक से अधिक लोग हिन्दू धर्म की प्राचीन विधियों, मंत्रों, चालीसा, भजन, आरती, त्योहारों, व्रतों और पूजा विधियों से अवगत हों और उनका लाभ उठा सकें।
हमारी सेवाएं:
- मंत्र और चालीसा: हमारे संग्रह में आपको भगवान की स्तुति के लिए पवित्र मंत्र और चालीसा मिलेंगे।
- भजन और आरती: भक्तों के लिए भक्ति और श्रद्धा के साथ गाए जाने वाले भजन और आरती।
- त्योहार और व्रत: हिन्दू कैलेंडर के अनुसार प्रमुख त्योहारों और व्रतों की जानकारी और उन्हें मनाने की विधि।
- पूजा विधि: विभिन्न प्रकार की पूजाओं की विधि और महत्वपूर्ण अनुष्ठानों का वर्णन।
हमारे संस्थापक: धर्मसूत्र की स्थापना अंकित कुमार ने की है, जो एक समर्पित हिन्दू भक्त हैं। अंकित जी का उद्देश्य हिन्दू धर्म की परंपराओं और मूल्यों को जीवित रखना और उन्हें नई पीढ़ी तक पहुँचाना है।
हमारी प्रेरणा: हिन्दू धर्म का ज्ञान और उसकी गहराई हमारी प्रेरणा का स्रोत है। हमारे पवित्र ग्रंथों में छुपे हुए महान विचार और शिक्षाएं हमें आगे बढ़ने की शक्ति देते हैं। हम उन सभी भक्तों के प्रति कृतज्ञ हैं जो इस यात्रा में हमारे साथ हैं।
दान और समर्थन: धर्मसूत्र एक गैर-लाभकारी संगठन है। हम दान स्वीकार करते हैं जो हमें इस मिशन को जारी रखने और इसे और भी व्यापक बनाने में सहायता करते हैं। भविष्य में, हम हिन्दू धर्म से संबंधित पुस्तकों, धार्मिक वस्तुओं और अन्य छोटे सामानों की बिक्री भी शुरू कर सकते हैं, जिससे प्राप्त होने वाला लाभ हमारे मिशन में उपयोग किया जाएगा।
हमसे संपर्क करें: यदि आपके पास कोई प्रश्न, सुझाव या प्रतिक्रिया है, तो कृपया हमसे संपर्क करें:
अंकित कुमार (मालिक) धर्मसूत्र ईमेल: [contact@dharmasutra.org]
हम आशा करते हैं कि आप धर्मसूत्र का उपयोग करके हिन्दू धर्म के पवित्र ज्ञान का अनुभव करेंगे और इसे अपने जीवन में उतारेंगे।
धन्यवाद, धर्मसूत्र टीम
“श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥” (भगवद गीता 3.35)